अच्छन कुमारी पृथ्वीराज चौहान की पत्नी की वीरगाथा

अच्छन कुमारी चंद्रावती के राजा जयतसी परमार की पुत्री थी। ऐसा कोई गुण नहीं था, जो अच्छन में न हो। वह बडी सुंदर, चतुर, धर्मात्मा और सुशील स्त्री थी। अभी जब वह छोटी ही थी, एक दिन हंसी हंसी में उनके पिता ने पूछा– बेटी तू किससे अपना विवाह करना चाहती है?। अच्छन ने कहा– मै तो अजमेर के राजकुमार पृथ्वीराज से विवाह करूंगी!।

पृथ्वीराज चौहान अजमेर के राजा सोमेश्वर सिहं चौहान का पुत्र था। वह अपनी वीरता के लिए विख्यात था। जयतसी ने मुस्करा कर कहा– अच्छा! परंतु यदि उसने अस्वीकार कर दिया तो क्या होगा?।

अच्छन कुमारी बोली– क्या कोई राजकुमार भी किसी राजपुत्री की बात टाल देगा?। यदि विवाह न हुआ तो मै जीवन भर कुवांरी रहूंगी। जयतसी ने तुरंत ही एक भाट के हाथ पृथ्वीराज के पास एक नारियल भेजा। उस समय छोटी अवस्था में होने के कारण विवाह नहीं हुआ।

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उस समय गुजरात मे राजा भोला भीमदेव जो अपनी वीरता, शूरता और धन के लिए जगत विख्यात था, का शासन था। जब उसने सुना कि अच्छन कुमारी बडी सुंदर है तो उसने अपने दूत को उनका हाल जानने के लिए भेजा। थोडे दिनों बाद लौटकर आए दूत से भोला भीमदेव ने पूछा– कहो क्या देखा?।

दूत ने कहा — महाराज! बस कुछ पूछिए नहीं। जिसे देखने के लिए आपने हमें भेजा था, वह तो ऐसी सुंदर है कि उसके सामने चंद्रमा भी लज्जाता है। उसकी आंखों को देखकर कमल अपनी पंखुड़ियां समेट लेता है। ऐसी सुंदर कन्या संसार में उनके अतिरिक्त दूसरी कोई न होगी। वह तो इस योग्य है कि आपकी पटरानी बने।

यह सुनकर भीमदेव बडा प्रसन्न हुआ और अपने मंत्री अमरसिंह को जयतसी के पास विवाह का संदेश लेकर भेजा। जयतसी ने बडे आदरपूर्वक उसका अतिथि सत्कार किया और कुशलक्षेम पूछने के पश्चात असल बात आरंभ हुई। अमरसिंह ने कहा– महाराज, गुजरात नरेश चाहते है कि आपकी कन्या अच्छन कुमारी को अपनी पटरानी बनाएं।

 

अच्छन कुमारी पृथ्वीराज चौहान की पत्नी की वीरगाथा

जयतसी कहने लगा– भीमदेव से संबंध करने में मेरे कुल का मान होता, परंतु अब मै क्या कर सकता हूँ, अब तो जो कुछ होना था, हो गया।

अमरसिंह ने कहा– इस मना करने का परिणाम यह होगा कि सहस्रों प्राणियों का वध हो, रूधिर की नदियां बहे, आपकी चंद्रावती भी नष्ट की जाए और व्यर्थ की लडाई हो।

राजा बोला– मै तुम्हें इसका उत्तर क्या दू? तुम भीमदेव से कह दो कि जब कन्या की मंगनी हो चुकी, तो फिर दूसरी जगह मंगनी कैसे हो सकती है। बात तो बदली नही जा सकती। यदि नासमझी के कारण कोई वैर भाव करे तो फिर मै भी तो राजपूत हूं और तलवार चलाना जानता हूँ। मै अपनी रक्षा कर लूंगा, परंतु मैं यह कभी भी नहीं चाहूंगा कि किसी प्रकार का अन्याय हो, चाहे कुछ भी क्यों न हो। भीमदेव के संदेश का उत्तर यह है कि परमार की कन्या की मंगनी एक जगह हो चुकी है, जब हम किसी भांति बात नहीं टाल सकते।

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अमरसिंह उसी समय अपनी राजधानी को लौट आया। जब भीमदेव ने सुना कि उसकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी गई, तो उसने उसी समय से युद्ध की सामग्री इकट्ठी करनी आरंभ कर दी। चंद्रावती छोटी सी रियासत थी। जयतसी के पास इतनी सेना कहा जो भीमदेव से युद्ध करे। उसने सोमेश्वर सिंह को सहायता के लिए बुला भेजा।

जिस समय भीमदेव ने चंद्रावती पर आक्रमण किया, उसी समय सोमेश्वर को खबर मिली कि बादशाह शहाबुद्दीन एक बडी सेना लेकर भारत पर आक्रमण करने के लिए आ रहा है, तथा खैबर के दर्रे से आगे बढ़ आया है। अब एक ओर तो भारतवर्ष की रक्षा का, दूसरी ओर पुत्रवधू के मान की रक्षा का विचार था। इन दोनों विचारों ने सोमेश्वर को बडे संशय मे डाल दिया। अंत में बहुत विचार करने के पश्चात उन्होंने यह निश्चय किया कि कुल का मान रखना अत्यावश्यक है, परंतु शहाबुद्दीन के आक्रमण की ओर से भी वह बेसुध नहीं था। वे स्वयं तो सेना लेकर जयतसी की सहायता को गए और अजमेर मे हर प्रकार की युद्ध सामग्री इकट्ठी करने की आज्ञा दे दी।

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पृथ्वीराज उस समय दिल्ली का मुख्य अधिकारी था। उसे चंद्रावती में पिता के जाने की खबर मिली। वह बैठा हुआ अपने मित्रों के साथ विचार कर रहा था कि क्या करना चाहिए कि इतने में एक मारवाड़ी ब्राह्मण आया। उसने राजकुमार के हाथ मे एक पत्र दिया। पृथ्वीराज ने पत्र को लेकर चंद्रभाट को दे दिया कि वह पढ़ें, परंतु उसने कहा–आप ही पढ़ें।

पृथ्वीराज ने पत्र पढ़कर सबसे कहा– महाराज सोमेश्वर जयतसी परमार की सहायता के लिए चंद्रावती गए है। इधर शहाबुद्दीन गौरी भी आक्रमण की नीयत से आ रहा है। पिताजी की आज्ञा है कि मै अजमेर की रक्षा करूं, परंतु इधर दूसरी ओर परमार राजकुमारी मुझे अपनी अपनी रक्षा के लिए बुलाती है। वह मेरी स्त्री है और इस सब लडाई का कारण भी वहीं है। पत्र को सुनकर सब चित्र की तरह बिल्कुल सुन्न हो गए। फिर पृथ्वीराज ने कहा– वीरों अब सोच विचार का समय नहीं है, स्त्री की सहायता को न जाना अति कायरता का काम होगा। मै चंद्र और रामराव को लेकर अचलगढ़ जाता हूँ, तुम जाकर अजमेर की रक्षा करो। हमारे पास सेना बहुत है, म्लेच्छों से भली प्रकार युद्ध कर सकेंगे। बाकी कुछ सेना दिल्ली में ही रहने दो, ताकि वह पांचाल की हद पर मुकाबला कर सके। जब तक तुम अजमेर पहुंचोगे, यदि ईश्वर ने चाहा तो मै भी अच्छन को लेकर आ जाऊंगा।

अच्छन कुमारी
अच्छन कुमारी और पृथ्वीराज चौहान


सांयकाल का समय था। सूर्यदेव अपनी पीली लाल किरणों से तमाम आकाश को सुशोभित कर रहे थे। पक्षी गण झुंड ईश्वर की प्रार्थना के गीत गाते हुए बसेरा करने वापस जा रहे थे। बस यह एक ऐसा समय था, जिसमें उदास से उदास प्राणी को भी एक बार तो अवश्य चेतना आ जाए। ऐसे ही समय राजकुमारी का मन बडी देर तक इधर उधर इन रमणीय स्थानों में भ्रमण करता रहा, कि इतने में सूर्यदेव ने अपना मुख ओट मे कर लिया और चंद्रदेव ने आकर उस स्थल को और भी रमणीय कर दिया। मैदान, पहाड, झरने आदि सब साफ साफ बडे सुदर लगते थे कि इतने में आबू के अग्निकुंड की ओर से तीन सवार किले की ओर आते दिखाई दिए।

वे सिधे किले के फाटक पर पहुंचे। उन्हें देखकर सब अति प्रसन्न हुए, क्योंकि ये वही लोग थे, जिन्हें बुलाने के लिए आदमी भेजा गया था। सवार घोडों से उतरे और दास दासियों ने चारों ओर से आकर उन्हें घेर लिया। अच्छन कुमारी का यह पहला ही अवसर था कि उन्होंने अपने प्राणाधार पति के दर्शन किए। पृथ्वीराज ने पूछा — तुम्हारी बाई कहा है?। दासियों ने कहा — वे ऊपर बैठी है आप चले जाइए।

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जब राजकुमारी ने देखा कि राजकुमार ऊपर ही आ रहे है तो वह स्वयं नीचे उतरी और दासियों को आज्ञा दी कि राजकुमार के स्नान के लिए जल लाएं। तुरंत ही जल आदि आ गया। राजकुमार और दोनों मित्रों ने स्नान करके भोजन किया। अब दासियां पृथ्वीराज को अच्छन के पास ले आई। वह लाज के मारे चुप होकर बैठ गई और सहेलियों के कहने पर भी वैसे ही बैठी रही। अंत मे सहेलियों ने कहा– महाराज! हम जाती है, आप बाईजी से बातचीत करें।


उनके चले जाने पर पृथ्वीराज ने कहा — जिस समय आपका पत्र पहुंचा, उसी समय मै वहां से चल दिया।
अब तो अच्छन कुमारी को उत्तर देना आवश्यक हो गया। उन्होंने मुस्कराकर कहा– आपने बडी दया की, आपको राह में बडा कष्ट हुआ होगा। इसका कारण आपकी यह दासी है।

राजकुमार बोला– तुम्हें देखकर मेरी सब थकावट जाती रही। इसके बाद और बहुत सी बाते होती रही। जिस समय पृथ्वीराज अचलगढ़ में था, उसी समय चंद्रावती पर आक्रमण किया गया। खूब तलवारें चली। परमार बडा बली और वीर था। रात को सब सो गए। सवेरा होते ही अच्छन कुमारी अपनी दो सखियों सहित घोडों पर सवार हुई। तीनों क्षत्रिय भी अपने घोडों पर चढे और फिर ये सब के सब अजमेर की ओर चल दिए और वहां पहुंचकर अच्छन को सहेलियों सहित महल मे भेज दिया गया।

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अब पृथ्वीराज ने अपनी सेना को ठीक करना आरंभ किया और फिर शहाबुद्दीन से लडाई का डंका बजा। तारावडी के मैदान में खूब लोहा बजा, जिसमे पृथ्वीराज की विजय हुई और शहाबुद्दीन को पराजित होना पडा। परंतु पृथ्वीराज चौहान ने एक भूल की कि ऐसे बलवान शत्रु पर अधिकार पाकर उसे जिंदा छोड दिया। सोमेश्वर सिंह चौहान चंद्रावती में भीमदेव के हाथों मारा गया था। इसलिए पृथ्वीराज का राजतिलक कर दिया गया और राजपुरोहित ने उसके साथ अच्छन का विवाह भी करा दिया।

अच्छन कुमारी राजकाज को भलीभांति समझती थी। पृथ्वीराज सदा उनकी सम्मति लेकर काम करता था। अच्छन कुमारी मे एक यह बडा अच्छा गुण था कि राजा की ऊंच नीच से परिचित रहती थी। भला कोई ऐसा काम हो तो जाए, जिसकी उसे खबर न मिले।

कुछ दिनों बाद पृथ्वीराज ने दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया। उस समय भारतखंड मे उससे ज्यादा वीर राजा कोई नहीं था। शहाबुद्दीन हिंदुस्तान को जीतना चाहता था, परंतु अवसर न पाता था। वह कई बार पराजित हुआ, परंतु धैर्य के साथ अवसर का इंतजार करता रहा। इधर पृथ्वीराज अपने बल के मद में चूर था, उधर कन्नौज नरेश जयचंद संयोगिता के स्वयंवर में पराजित होने के उनका शत्रु बन गया। स्वंयवर की लडाई में चुनिंदा सरदार मारे गए, केवल दो चार शेष रहे थे। सन् 1193 में शहाबुद्दीन फिर चढ़ आया। इस लडाई में उसे फिर पराजित होना पड़ा, राजपूतों ने समझा कि अब वह मुकाबले को न आएगा। उनकी कुछ सेना तो दिल्ली चली आई और कुछ वीर जय मनाते रहे। एक सरदार विजयसिंह का शहाबुद्दीन से मेल था। जब सब लोग खुशी मना रहे थे, वह अपने राजपूतों को लेकर यवनों से जा मिला। उस विश्वासघाती ने तथा जयचंद ने शहाबुद्दीन को फिर मुकाबले के लिए तैयार किया। आक्रमण किया गया, बहुत से आदमी मारे गए। हिन्दुओं का समय आ चुका था, उनके प्रारब्ध मे तो गुलामी बंधी थी, राज्य कौन करता! विजयसिंह की मक्कारी से पृथ्वीराज जख्मी होकर गिरा और बेहोशी मे पकड़ा गया। जब विपत्ति आती है तो एक ओर से नहीं आती, बल्कि चारों ओर से आती है। जिधर देखो बस घोर विपत्ति ही विपत्ति दिखाई पड़ती है। उधर तो पृथ्वीराज रण को गया, इधर पृथ्वीराज चौहान की पुत्री ऊषावती का स्वास्थ्य बिगडा। दुखिया रानी उसकी खाट से बराबर लगी बैठी रही। जब उन्होंने डेरे के बाहर बड़ा कोलाहल सुना तो बडी चकित हुई। इतने मे दो क्षत्रिय हांफते हुए आएं और कहने लगे — भागों भागों अपना धर्म बचाओ, यवनों की जय हुई, वे राजभवन को लूटने आ रहे है।

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रानी बोली — महाराज कहाँ है?
उत्तर मिला — राजा को हमने रणभूमि में पडे देखा था।
यह खबर सुनकर ऊषावती घबरा गई और पूछने लगी — समर कल्याणादि कहाँ है?
सिपाहियों ने कहा — वे सब मारे गए।
यह सुनना था कि वह चिल्ला उठी — नाथ” आप अग्नि मे आहूति हो गए। यह कहकर वह बेसुध हो गई और फिर न ऊठी। रानी बेचारी वहीं धाड मार मारकर रो रही थी।
सिपाही कहने लगे– रानी जी, जल्दी नगर को चलिए, शत्रु लोग चले आ रहे है। कहीं ऐसा न हो, वे हमारा धर्म भी नष्ट कर दे।
यह सुनकर रानी को होश आया। उन्होंने सुंदर वस्त्र भूषण उतार दिए, सर की जटाएँ खोल ली, और जैसे कोई बावली बातें करती है, वैसे बकने लगी — मुझे अब क्या चिंता है, किसका डर है, जिसका था वो तो गया। सब धन लक्ष्मी लुट गई। अब मै भागकर अपने को क्यों बचाऊं, चलो! जल्दी चिता बनाओ। यवन, म्लेच्छा मेरा क्या करेंगे। जिसे अपनी जान अपनी जान प्यारी हो, वह भाग जाए, मै तो न भागूगी। दिल्लीपति मर गया। चांडाल शहाबुद्दीन ने मार डाला। महाराज ने उसे छोड दिया था। दुष्ट को तनिक भी दया न आई। चलो जल्दी करो। राजा का शरीर अभी ठंडा नहीं हुआ होगा। चिता बनाओ, मै राजा के साथ स्वर्ग जाऊंगी।

ये बातें सुनकर लोगों ने चिता बना दी और ऊषावती का मृतक शरीर उस पर रख दिया। रानी भी चंदन लगा, गले मे श्वेत पुष्पों का हार डाल, चिता की परिक्रमा कर बिल्कुल तैयार हो रही थी कि एक व्यक्ति घोडा दौड़ाता हुआ उधर आया। यह पृथ्वीराज का सेनापति था। वह तुरंत ही रानी के पांव से लिपट गया।
अच्छन बोली– बलदेव क्या कहते हो?
वह बोला– महाराज ने आपको संदेश भेजा है।
रानी बडी चकित हुई– हाय यह संदेश कैसा? दिल्ली का राजा तो रण मै मारा गया, तुम किसका संदेश लाए हो?
उत्तर मिला– देवी, राजा मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े, परंतु…..
अब रानी बोली– इस परंतु से अब क्या मतलब है? जल्दी कहो।
वह बोला — देवी, राजा कैद में है, वे मलेच्छों के हाथ पड़ गए।


रानी की आंखें बिल्कुल रक्तवर्ण हो गई — दिल्ली पति का क्या संदेश है? यह संदेश तुम सेनापति होकर सुनाने आए हो! तुम सच्चे क्षत्रिय हो, तुम्हारी माता धन्य है कि राजा कैद में है और तुम इस प्रकार का संदेश सुनाने आए हो। और वो भी मुझे? दासियों देखो , यह क्षत्रिय का पुत्र है और दिल्लीपति का दाहिना हाथ है। जो राजा का साथ छोड, अपने धर्म से मुंह मोडकर मुझे संदेश सुनाने आया है। आज से क्षत्रिय धर्म नष्ट हो गया। राजभक्ति, देशभक्ति, धर्मभक्ति सब जाती रही। अब तो संदेश सुनाने वाले रह गए है। धन्य है! वीर क्षत्रिय तेरी जुबान धन्य है। तेरा घोडा धन्य है और धन्य है तेरी तलवार। अहा! देखो तो आप मैदान से आ रहे है, अरे, क्या तेरी स्त्री तुझसे प्रसन्न होगी? क्या तेरी माता की छाती न फटेगी ? अरे वीर , क्या तुझे लाज भी न रही ? । जा, सामने से दूर हो, मुझे मुंह मत दिखा। मै दिल्लीपति की सच्ची प्रजा हूँ, मै राजपरायण होना चाहती हूँ। तुम सिंह से श्रृंगाल बन गए। रणभूमि से भाग आए और राजा की सती स्त्री को संदेश सुनाते हो। दुष्ट तुने किसी क्षत्राणी का दूध नहीं पिया। तुझे अपने देश की स्वतंत्रता प्यारी न थी। तुम्ही जैसे लोग तो कुल, देश, तथा राज के कलंक होते है। मेरे सामने से चला जा। मै अब भी क्षत्रिय की पुत्री हूँ, चाहे सूर्य जरा सी देर में छिन्न भिन्न होकर भूमि पर गिर पडे, परंतु मै अपने धर्म से न गिरूँगी। मैं राज राजेश्वरी हूँ, जा भाग जा।
और फिर तुरंत ही लोगों से कहा — इससे तलवार छीन लो। और जब तलवार उनके हाथ मे आ गई, वह छलांग मार बलदेव के घोडे पर जा बैठी। उस समय उनकी शोभा देखने योग्य थी। हाथ में नंगी तलवार, केश खुले हुए, माथे पर चंदन लगा हुआ और निडर घोडे पर बैठी है। उन्होंने सेवकों से कहा — प्रजा का धर्म है, राजा की रक्षा करें। मै अकेली शत्रुओं से लडकर उन्हें छुडा लाऊंगी। यह सब शरीर राजा का है और राजा के काम मै ही कटकर गिरेगा।

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राजपूतों को उसकी बात सुनकर जोश आ गया — माता ! जब तक जान मे जान है तब तक लडेंगे, मरेगें, कटेंगे और काटेंगे। बस फिर क्या था, रानी घोडे को एड़ लगा ये जा वो जा, और शत्रु की फौज पर टूट पडी। राजपूत भी उसके संग थे। मुसलमान लोग राजभवन लूटने को आ रहे थे। रानी ने जाकर महाप्रलय मचा दी, जिधर जो पड़ जाए गाजर मूली की तरह काट दिए। शहाबुद्दीन की फौज डर गई हाय! यह कौन बहादुर औरत है, जो इस तरह हमारी फौज को काट रही है। परंतु एक के लिए दो बहुत है। जबकि यहां तो कुछ गिनती नहीं। शहाबुद्दीन की सेना ने उन्हें घेर लिया और उन पर तीर चलाना चाहा, परंतु वह बच गई। फिर एक तीर आया, जिससे रानी परलोक सिधार गई। शहाबुद्दीन ने बहुत चाहा कि रानी का मृत शरीर मिल जाए, परंतु वीर राजपूतों ने उन्हें चिता पर पहुंचा दिया और स्वंय लडकर प्राण दिए।

जब चिता में आग दी गई तो फिर बहुत सी स्त्रियां परिक्रमा कर करके चिता मै बैठ गई और अच्छन कुमारी के साथ सांयकाल बहुत सी स्त्रियां इस प्रकार सती हो गई। उधर राजा को कैद कर गोर पहुंचाया गया। भारत का राज छिन गया। शहाबुद्दीन राजा बन बैठा।

 

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